12 वर्ष पहले
पुलिस सुधार एक ऐसा विषय है, जिसे मैं अपने टीवी कार्यक्रमों में पिछले काफी समय से उठाता रहा हूं। हमारे मुल्क में जब आर्थिक सुधारों पर इतनी बड़ी बहस हो सकती है, मल्टीब्रांड में एफडीआई की जरूरत पर इतने विस्तार से चर्चा हो सकती है, तो पुलिस सुधार के बारे में क्यों नहीं? बात भले ही कड़वी लगे, मगर हकीकत यही है कि किसी भी पार्टी के नेता पुलिस की ताकत को हाथ से निकलने नहीं देना चाहते।
दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद उपजा जनाक्रोश कुछ हद तक पुलिस के कामकाज को लेकर भी था। ऐसे कई सवाल हैं, जो पुलिस को लेकर हमारे मन में उठते हैं। क्या यह वाकई लोगों की पुलिस है, या फिर नेताओं की? क्या आम आदमी के दिमाग में पुलिस की छवि सिर्फ वीआईपी लोगों को हिफाजत देने वाले की बन गई है, या लोग उसे अपना समझते हैं? पुलिस की संवेदनशीलता पर बहस करने के साथ-साथ हमें इसमें बदलाव की बुनियादी बात पर भी गौर करना होगा।
ऐसा नहीं है कि हर पुलिस अफसर गलत है और पुलिस में सब कुछ गलत होता है, वरना सिस्टम अब तक चकनाचूर हो चुका होता। लेकिन बदलाव की यकीनन जरूरत है, जिससे खुद पुलिस को आगे जाकर अपने कामकाज में मदद मिलेगी।
महिलाओं के प्रति पुलिस कैसी है? यह फिर एक बड़ा मुद्दा है।
लैंगिक संवेदीकरण की बात कही जाती है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि समस्या आ कहां से रही है। हालिया जनाक्रोश के बाद दिल्ली के थानों में खासतौर पर महिला पुलिस की तैनाती बढ़ाने जैसे कुछ फैसले जरूर लिए गए हैं, लेकिन पुलिस सुधार के दूरगामी समाधान की तरफ देखना ज्यादा जरूरी है।
इसमें ऐतिहासिक मोड़ तब आया, जब देश की सर्वोच्च अदालत ने वर्ष २क्क्६ में पुलिस के सुधारों को लेकर उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह की याचिका पर अपने निर्देश देश के सामने रखे। लेकिन उसके बाद भी कुछ बड़ा बदलाव हुआ? नहीं।
पुलिस आज भी ब्रिटिशकालीन 1861 के पुलिस एक्ट पर चलती है। हालांकि उसमें समय-समय पर कई संशोधन या बदलाव जरूर हुए हैं, लेकिन बड़े या बुनियादी बदलाव नहीं। दुष्कर्म जैसे संगीन मामले पर चर्चा करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की मांग की जा रही है, मगर किसी ऐसे सत्र में पुलिस में बदलाव या सुधारों की मांग हमारे सम्मानित नेता क्यों नहीं उठाते? यह एक मूल प्रश्न है, जिसका जवाब देने का समय आ गया है।
आखिर सरकार इस मसले पर एक श्वेत-पत्र क्यों नहीं ला सकती? पुलिस में सुधार को लेकर कई कमेटियां बन चुकी हैं। 1998 और 1999 की रिबेरो कमेटी और फिर पद्मनाभैया कमेटी पुलिस सुधारों पर बनी अहम कमेटियां थीं। इनके बाद व्यवस्था में कुछ तब्दीलियां जरूर हुई हैं, लेकिन क्या देश को यह जानने का हक नहीं है कि इनका पूरा ब्यौरा या हिसाब-किताब क्या है।
अगर हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष २क्क्६ में पुलिस सुधार के संदर्भ में दिए गए सात अहम निर्देशों का जिक्र करें, तो कई बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। सुप्रीम कोर्ट के पहले निर्देश के मुताबिक एक राज्य सुरक्षा आयोग बनाया जाए, ताकि राज्य सरकारें पुलिस पर अपना दबाव न बना सकें और पुलिस संविधान में किए गए प्रावधानों के मुताबिक चले।
यह एक वाचडॉग बॉडी के जैसा होगा। दूसरी बात, डीजीपी को चुनने का और उनके कार्यकाल का भी एक तरीका हो। ये भी सियासी दबाव से मुक्त करने की बात है। तीसरी बात, आईजी पुलिस और बाकी अधिकारियों के लिए भी एक निश्चित कार्यकाल की बात कही गई है, ताकि तबादलों का डर खत्म हो। चौथी बात बहुत ज्यादा अहम है, खासतौर पर बलात्कार जैसे घिनौने अपराधों के मद्देनजर कि जांच करने वाली पुलिस के सिस्टम को कानून-व्यवस्था बनाए रखने वाली पुलिस के सिस्टम से अलग रखा जाए, ताकि जांच ज्यादा तेजी से हो सके।
इसके साथ-साथ इन दोनों में बेहतर समन्वय हो, ताकि जांच किसी भी स्तर पर कमजोर न पड़े। पांचवीं बात, एक पुलिस एस्टेबलिशमेंट बोर्ड हो, जो डीएसपी या इससे नीचे की रैंक के पुलिस अफसरों के तबादले, पोस्टिंग, पदोन्नति समेत अन्य सेवा-संबंधी मसलों को देखे। छठी बात भी मेरे हिसाब से आम आदमी के नजरिए से बहुत महत्वपूर्ण है कि एक पुलिस कंप्लेंट्स अथॉरिटी हो। बहुत से लोग ये मानते हैं कि उन्हें अगर खासतौर पर निचले स्तर की पुलिस के कामकाज से शिकायत है तो वे कहां जाएं! यह इसके लिए बनाया जा सकता है।
राज्य स्तर पर यह एसपी और उसके ऊपर के रैंक के अधिकारियों से जुड़ी शिकायतें सुन सकता है और जिला स्तर पर इससे नीचे के अधिकारियों की शिकायतों पर विचार कर सकता है। जिला स्तर पर यह किसी रिटायर्ड डिस्ट्रिक्ट जज की अध्यक्षता में हो सकता है और राज्य स्तर पर किसी रिटायर्ड हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में हो सकता है।
सातवीं बात, एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग गठित किया जाए, जो एक पैनल बनाए और नियुक्तियां करने वाली अथॉरिटी के समक्ष अपना सुझाव रखे, बड़े स्तर की नियुक्तियों के लिए। खासतौर पर पुलिस प्रमुखों के लिए, जिनके काम की समयसीमा कम से कम दो साल की होनी चाहिए।
हम बार-बार यह कह रहे हैं कि देश के लोगों में सिस्टम के खिलाफ जो गुस्सा है, उसे सही दिशा में बदलाव की तरफ मोड़ने की जरूरत है। इसके लिए सत्ता में बैठे लोग सुप्रीम कोर्ट के इन सुझावों पर गंभीरता से विचार करें तो बेहतर है। मैं कानून या संविधान का विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन एक आम हिंदुस्तानी की तरह इतना जरूर समझता हूं कि ये वो रास्ते हैं, जिनसे दूरगामी समाधान निकल सकते हैं और पुलिस अपनी छवि नेताओं की पुलिस के तौर पर नहीं, वरन आमजन की पुलिस के तौर बना सकती है।
अभिज्ञान प्रकाश
टीवी एंकर एवं वरिष्ठ पत्रकार