यह तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाना नहीं, तो और क्या है? और कुछ नहीं मिला, तो अभक्तों ने फुले की जीवनीपरक फिल्म पर सेंसर बोर्ड के यहां-वहां कैंची चलाने पर ही हंगामा कर रखा है। सेंसर बोर्ड वाले भी बेचारे क्या करते? फिल्म ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत जो कर रही थी।
वैसे सच पूछिए, तो कसूर फिल्म का भी नहीं था। जब फुले की जीवनी ही ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत करने वाली थी, फिल्म बनाने वाले बेचारे ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत होने से बचाते भी, तो कहां तक बचाते?
अव्वल तो फुले का होना यानी ब्राह्मणों की नजरों में पड़ना ही उनकी भावनाओं को आहत करने वाला था। उनकी जाति नीची जो थी। वर्ना उन्हें ब्राह्मण दोस्त की बारात में से अपमानित कर के क्यों भगाया जाता। नीची जाति में जन्म लेकर भी, लिखने-पढ़ने का काम यानी ब्राह्मणों का डबल-डबल अपमान! और उसके ऊपर से लड़कियों को और निचली जातियों के बच्चों को पढ़ाने की जिद यानी ब्राह्मणों के ऊंचे आसन को हिलाने की कोशिश। यानी ब्राह्मणों का घनघोर टाइप का अपमान ही नहीं, उन पर घातक हमला। ब्राह्मणों का ट्रिपल-ट्रिपल अपमान।
और इस सब के ऊपर ब्राह्मणों को अब अमृतकाल में इसकी याद दिलाकर चिढ़ाना कि कभी ऐसे-ऐसों ने भी उनका अपमान किया था, जबकि वे अपने अपमान की ऐसी सारी बातों को कब के भूल चुके हैं। यानी भावनाओं पर चौपल-चौपल आघात।
विरोध तो होना ही था। विरोध होने पर सेंसर बोर्ड का अपनी कैंची पर हाथ जाना ही था ; आखिर विरोध ब्राह्मणों का था, मुसलमानों या दलित-वलित का थोड़े ही था। फिर भी विरोध ब्राह्मणों का, फिल्म फुले की, कैंची सेंसर बोर्ड की और सेंसर की कैंची चलने के लिए ब्लेम मोदी जी सरकार पर! यह तो सरासर जुल्म है भाई।
और यह जुल्म भी तब है, जबकि फुले की फिल्म पर सेंसर की कैंची चलना अपनी जगह, मोदी जी, फडनवीस जी आदि, आदि सारे जी लोग ने ज्योतिराव फुले की जयंती पर दिल खोलकर फूल बरसाए हैं। हैलीकोप्टर वाले न सही, हैलीकोप्टर वाले फूल कांवड़ियों और कुंभ स्नानार्थियों के लिए रिजर्व्ड सही, ट्विटर पर प्रशंसा के फूल तो बरसाए ही हैं। और यह पहली बार नहीं है, जब मोदी जी के परिवार ने फुले पर शब्दों के फूल बरसाए हैं। चेक कर के देख लीजिए, पिछले बरस भी बरसाए होंगे, उससे पिछले बरस भी। मोदी परिवार जब से राज में आया है, किसी भी महापुरुष का बर्थ डे उसने, शब्दों के फूल बरसाए बिना नहीं निकलने दिया है। महापुरुषों वाले फूल बरसाए जाने की बस एक ही शर्त है, बंदा मुसलमान नहीं होना चाहिए। वर्ना शब्दों के फूलों के भी अंगार बन जाने का खतरा रहता है।
पर शब्दों के फूलों की बरसात में क्या कुछ व्यंग्य की ध्वनि नहीं आती है? फूल और वह भी सिर्फ शब्दों के! लेकिन, मोदी जी का परिवार तो, भक्ति में विश्वास करता है। वे तो महापुरुषों की पूजा करने वाले लोग हैं और पूजा के मामले में दिल में बड़ी उदारता रखते हैं। तभी तो गांधी और गोडसे की एक साथ पूजा करते हैं। ऐसे ही अम्बेडकर और मनु की एक साथ पूजा कर लेते हैं। और फुले के साथ, ब्राह्मण संगठनों की। एक बार पूजा करने का मन बना लेते हैं, फिर वे विरोधियों की एक नहीं सुनते हैं। जब मनु महाराज की पूजा करते हैं, तो अम्बेडकर की नहीं सुनते हैं और जिस दिन अम्बेडकर की पूजा करते हैं, उस दिन मनु महाराज की बिल्कुल भी नहीं सुनते हैं। फुले के बर्थ डे पर फूल बरसाए, तो क्या उनके खिलाफ ब्राह्मण संगठनों की शिकायतों का जरा-सा भी असर पड़ने दिया? हर्गिज नहीं!
और अम्बेडकर भक्ति तो इतनी प्रचंड है कि ग्यारह साल में खोज-खोजकर अम्बेडकर के स्मारक बनवाए हैं ; देश में ही नहीं, विदेश में भी ; दिल्ली-मुंबई में ही नहीं, लंदन में भी। बस वे सिर्फ इतनी अर्ज करते हैं कि उनसे पुजाते रहने के लिए फुले हों या अम्बेडकर, बस मूर्ति बने रहें। उनके और अपनी पूजा के बीच, अपने विचारों वगैरह को नहीं आने दें। स्पेशली जाति के सवाल को। वर्ना? वर्ना क्या, उन्हें मंदिर का घंटा और जोर-जोर से बजाना पड़ेगा। ध्वनि प्रदूषण बढ़ता है, तो इसके लिए संघी भक्त जिम्मेदार नहीं होंगे।
जैसे महापुरुषों के विचारों को पूजा के बीच में नहीं आने दिया जा सकता है, वैसे ही महापुरुषों की जीवनियों को उनके लिए भक्ति के बीच में नहीं आने दिया जा सकता है। जीवनियां कौन सी पत्थर की लकीर होती हैं, उन्हें आसानी से बदला भी जा सकता है। पूरा भी क्यों बदलना, यहां-वहां से कतरना काफी होना चाहिए। जीवनी अगर सेल्युलाइड पर लिखी गयी हो, तब तो उसमें ऐसी काट-छांट और भी जरूरी हो जाती है। कागद की लिखी और छपी को अब पढ़ते ही कितने लोग हैं। पर सेल्युलाइड पर लिखी जीवनी, देखते-देखते लोगों के दिल-दिमाग में घुस जाती है और इससे ताकत वालों के सचमुच आहत होने का खतरा रहता है। इसीलिए तो अब तक किताबों के लिए बाकायदा सेंसर बोर्ड नहीं बनाया गया है, बस लेखकों से लेकर प्रकाशकों तक तो, डराने-धमकाने से ही काम चलाया जा रहा है। पर फिल्मों के लिए बाकायदा सेंसर बोर्ड है। सेंसर बोर्ड है, तो उसके हाथ में कैंची है। और कैंची का तो धर्म ही है काटना। जीवनी फुले की हो या किसी और की, कैंची तो अपने धर्म का ही पालन करेगी। कैंची ने अपने धर्म का पालन किया और फुले की जीवनी को जगह-जगह से कतर दिया।
लेकिन, इसका मतलब यह हर्गिज नहीं है कि कैंची हरदम चलती ही रहती है। कैंची कई बार काटते-काटते थक भी जाती है या चलना भूलकर मुग्ध भाव से सिर्फ देखते ही रह जाती है, जैसे छावा फिल्म में। जीवनी वह भी थी, मगर कैंची नहीं चली, तो नहीं ही चली। बस इतना जोड़ना काफी हुआ कि कहानी कल्पनिक है। वैसे मोदी जी का परिवार सिर्फ सेंसर बोर्ड की कैंची के आसरे भी नहीं है। मलयालम फिल्म एम्पूरन के साथ क्या हुआ? सेंसर की कैंची नहीं चली, तो मोदी जी के परिवार की लाठी चली। फिल्म बनाने वालों को खुद ही अपनी सेंसर की कैंची से बच निकली फिल्म पर, कैंची चलानी पड़ी। मोदी जी के परिवार ने यहां भी आत्मनिर्भरता करा ही दी ; अपनी फिल्म, अपनी कैंची, कितना भी काटो।
रही जाति की बात, तो वह तो मुसलमानों की फैलायी अफवाह थी। इसका अंगरेजों ने दमदारी से खंडन किया होता, तो करणी सेना को आज तलवारें लेकर रक्त स्वाभिमान यात्रा नहीं निकालनी पड़ती। खैर, अब डबल इंजन के राज में दमदारी से खंडन होगा और हमें फुले का एक नया रूप दिखाई देगा, एक ऐसे योद्धा का रूप, जिसको किसी से कभी लड़ना ही नहीं पड़ा। और अगर लड़ने का बहुत ही शौक हो तो करणी सेना, ब्राह्मण सेना आदि अब भी तैयार खड़ी हैं।
2. एकोहं द्वितीयो नास्ति : विष्णु नागर
भक्तों की महती कृपा से एक सप्ताह में इतने सारे विषय लिखने के लिए मिल जाते हैं कि मालामाल हो जाता हूं। इतना मालामाल कि सारा माल बटोर नहीं पाता। एक विषय पर लिखने की सोचता हूं, तो दूसरा प्रकट हो जाता है। दूसरे की ओर बढ़ता हूं, तो तीसरा सामने आ जाता है। इसी तरह चौथा, पांचवां ही क्या, दसवां भी प्रकट हो जाता है।
अब एक माननीया कंगना रनौत जी हैं। उनके ‘सुवचन’ इधर बाबाओं के ‘सुवचनों’ से भी अधिक ‘लोकप्रिय ‘ हो रहे हैं। मोहतरमा ने इधर फ़रमाया है कि चांद पर भी एक दाग़ है, मगर मोदी जी पर एक भी नहीं! कितनी अनोखी खोज है, कितना काव्यात्मक विचार है! मोदी जी तो खुशी से उछल पड़े होंगे। उधर चांद बेचारे के मन में यह सुनने के बाद या तो आत्महत्या करने का विचार आया होगा या मोदी जी बनने की दिशा में वह आगे बढ़ने की सोचने लगा होगा! हमारे सौरमंडल में चांद तो सैकड़ों हैं, मगर पूरे ब्रह्मांड में मोदी जी केवल एक हैं! एकोहं द्वितीयो नास्ति और ऊपर से उन पर एक दाग तक नहीं है! वह तो चांद के भी चांद हैं!!
कंगना जी यह भी चाहती हैं कि उनके दागरहित भगवान के मंदिर पूरे देश में बनें, ताकि लोग उनकी पूजा कर सकें। वह बेचारी नहीं जानतीं कि उनके इन भगवान के दर्शन तो बिना मंदिर के भी रोज सुबह-दोपहर-शाम हर किसी को करने ही पड़ते हैं। सार्वजनिक शौचालय तक उनके दर्शनों से सुरक्षित नहीं हैं! और क्या चाहती हैं वे?कंगना जी, मूर्खता के प्रति आपका यह संपूर्ण और बिना शर्त समर्पण वंदनीय है। पूरी दुनिया आपकी मूर्खता की ओर एकटक देख रही है और आपको भ्रम है कि वह आपके सौंदर्य का रसपान कर रही है!
और एक जिहादी रामदेव जी हैं। देश में बहुत कुछ करवा चुके हैं। यहां तक कि वह मोदी जी से पेट्रोल तीस रुपए लीटर करवा चुके हैं। अब अपना शरबत बेचने के लिए दशकों से बिक रहे रूहअफ़ज़ा के विरुद्ध जिहाद छेड़ दिया है। वह कह रहे हैं कि उनका शर्बत खरीदोगे, तो मस्जिद और मदरसे बनेंगे। उन्होंने यह नहीं कहा कि अगर मेरी कंपनी का शर्बत खरीदोगे, तो मंदिर और गुरुकुल खुलेंगे। होशियार बनिये हैं। यह भी एक आकर्षक विषय है।
विषय तो और भी हैं, पर अब हम आते हैं योगी जी पर, जिनके राज्य में सारे जिहाद होते रहते हैं और आगे भी होते रहेंगे। लेटेस्ट ‘शरबत जिहाद’ भी उनके राज्य में पहुंच जाएगा, मगर माननीय योगी जी आजकल गरीबी के खिलाफ जिहाद छेड़ने के मूड में हैं। उन्होंने अगले तीन साल में उत्तर प्रदेश से गरीबी पूरी तरह खत्म करने का कौल ले लिया है।
गरीबी-वरीबी योगियों-मोदियों जैसे ‘अध्यात्मिक पुरुषों’ के विचार का विषय नहीं होना चाहिए। उन्हें इसमें विषय-वासना जैसी गंध आनी चाहिए। वैसे भी मोदी जी, पूरे देश से गरीबी कभी की दूर कर चुके हैं और जो यत्र-तत्र चांद में दाग़ की भांति बची रह गई है, उसे भी वह 2047 तक दूर करने के लिए कृतसंकल्प हैं। वायदे के मुताबिक वह पिछले 11 साल में हर वर्ष दो करोड़ के हिसाब से 22 करोड़ रोजगार दे चुके हैं और 2029 तक आठ करोड़ रोजगार और दे देंगे। इसके अतिरिक्त, हर आदमी के बैंक खाते में 15-15 लाख रुपए डलवा चुके हैं। ‘अच्छे दिन’ तो वे ले ही आए थे, अमृतकाल भी ला चुके हैं। और क्या करें बेचारे, देश से गरीबी हटाने के लिए? योगी जी को अपने नेता तक पर भी विश्वास नहीं है, जबकि उत्तर प्रदेश सरकार के हर विज्ञापन में वह पहले मोदी जी की तस्वीर चिपकवाते हैं, फिर अपनी!
सात साल राज करने के बाद अब उन्हें भी राहुल गांधी की तरह उत्तर प्रदेश में गरीबी क्यों नज़र आने लगी है! और तो और वह इसे मिटाना भी चाहते हैं!! घोर आश्चर्य!!! अच्छा ओह,याद आया कि तीन साल बाद यूपी में चुनाव आ रहे हैं, तभी तो सोचूं कि इन्हें गरीबी जैसे गरीब और गैर-मुस्लिम विषय का खयाल कहां से आ गया!
वैसे योगी जी, आप खुद भी अपने ‘सुकर्मों” से गरीबी काफी हद तक दूर कर चुके हो! आपने संविधान की शपथ जरूर ली है, मगर आपने अपनी जिम्मेदारी हिंदू युवाओं तक सीमित रखी है, जो आप अच्छी से भी अच्छी तरह निभा रहे हो। आपके युवा रोज कहीं-न-कहीं डंडे, तलवार, फरसे लहराते हुए, डीजे बजाते हुए, जुलूस पर जुलूस निकाल रहे हैं। मस्त हैं। कभी मस्जिद पर, कभी मजार पर भगवा फहरा रहे हैं, मस्त हैं। किसी को मार रहे हैं,किसी की इज्ज़त का कचरा कर रहे हैं, खुश हैं। उनकी ग़रीबी-बेरोजगारी आप लगभग दूर कर चुके हो। किसी को आपने गोरक्षा पर लगा रखा है। उस मोर्चे पर वह जो भी संभव और जो असंभव है, सब करने के लिए आपके संरक्षण में वे स्वाधीन हैं। उन्हें भरोसा है कि वे किसी का कत्ल भी कर देंगे, तो उनका बाल तक बांका न होगा। किसी को आपने लव जिहाद के मोर्चे पर लगा रखा है। किसी को मस्जिद के आगे डीजे बजाने, मस्जिद और दरगाह में घुसने पर लगा रखा है। किसी को मस्जिद खोदकर मंदिर प्रकट करवाने पर लगा रखा है। किसी को मुस्लिम बस्तियों में बुलडोजर आमंत्रित करने का दायित्व दे रखा है। मतलब हर बेरोजगार हिंदू युवा को आपने ‘आत्मसम्मान’ और ‘रोजगार’ दोनों दे रखे हैं। सबसे कह रखा है कि वीर युवकों, महाराणा प्रताप और शिवाजी की संतानों, कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो। फल देने वाला मैं हूं न और साथ में मोदी जी-शाह जी भी हैं!
तो योगी जी आपके राज्य में गरीबी-बेरोजगारी की समस्या हल हो चुकी है। आप फालतू में परेशान न हों। विकास का एक गुजरात माडल था, एक आपका बुलडोजर माडल है। उसे सभी भाजपाई राज्य प्रेमपूर्वक अपना रहे हैं। उत्तर प्रदेश का तो नहीं, आपका भविष्य उज्जवल है। भक्त प्रजाति आप में भावी प्रधानमंत्री देखने लगी है। ऐसा हुआ, तो गरीबी की देशव्यापी समस्या भी पूर्णतया हल हो जाएगी। 2047 से बहुत पहले भारत ‘विकसित’ हो जाएगा और मोदी जी इतिहास के किसी गर्त में पड़े-पड़े आंसू बहा रहे होंगे।
(राजेंद्र शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं। विष्णु नागर स्वतंत्र पत्रकार, लेखक और कवि हैं।)