राजस्थान पुलिस द्वारा मध्यप्रदेश के दो पत्रकार आनंद पांडेय और हरीश दिवेकर की गिरफ्तारी ने लोकतंत्र और प्रेस स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
दोनों ‘द सूत्र’ यूट्यूब चैनल चलाते हैं और उनके खिलाफ उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी के कार्यालय से “भ्रामक खबरें फैलाने और आर्थिक लाभ लेने की कोशिश” के आरोप में एफआईआर दर्ज हुई।
एफआईआर के बाद राजस्थान पुलिस ने बिना प्रथम सूचना नोटिस जारी किए मध्यप्रदेश पहुंचकर दोनों को हिरासत में लिया और जयपुर ले गई।
कानूनी रूप से यह कार्रवाई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 35, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और अनुच्छेद 22(1) के उल्लंघन की ओर संकेत करती है।
BNSS के अनुसार गिरफ्तारी से पहले नोटिस देना अनिवार्य था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
साथ ही मध्यप्रदेश पुलिस को पूर्व सूचना न देने से यह संघीय ढांचे और न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन बनता है।
पुलिस ने इस मामले को “साइबर अपराध” और “उगाही” बताया, पर अब तक कोई डिजिटल साक्ष्य सार्वजनिक नहीं किया गया।
कानूनी विशेषज्ञ इसे राजनीतिक दबाव में की गई कार्रवाई मान रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट की नजीरों — Romesh Thapar vs State of Madras (1950), Shreya Singhal vs Union of India (2015) और Arnesh Kumar vs State of Bihar (2014) — के अनुसार सत्ता की आलोचना अपराध नहीं है और गिरफ्तारी केवल जांच के लिए अपरिहार्य स्थिति में ही हो सकती है।
उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी की ओर से अब तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया, जिससे मामला और संदिग्ध प्रतीत होता है।
यदि हाई कोर्ट इस प्रकरण की न्यायिक जांच करे तो यह स्पष्ट होगा कि यह कार्रवाई “आवश्यकता” थी या “दमन।”
यह सिर्फ दो पत्रकारों की गिरफ्तारी नहीं बल्कि संविधान की साख और लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है —
क्योंकि जब सवाल पूछने पर गिरफ्तारी हो, तो लोकतंत्र की सांस घुटने लगती है।

यह लेख अभि मनोज जी के फेसबुक वाल से लिया गया है।
