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ट्रम्प से इतना भय क्यों खा रहे हो, क्या डर है जो छुपा रहे हो? (आलेख : बादल सरोज)

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बहुतई विचित्र समय है। उधर माय डिअर फ्रेंड ऐसा पिलकर पीछे पड़ा हुआ है कि चुप्प होने का नाम ही नहीं ले रहा और इधर उनके प्यारे मित्र मोदी ऐसी चुप्प साधे हैं कि बोल ही नहीं फूट रहा ; न हाँ कहते बन रहा है, न ना कहने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच हुई लड़ाई – जिसमें अमरीकी राष्ट्रपति को परमाणु युद्ध तक की आशंका दिखाई दे गयी थी – में बीच-बचाव करके, उन्हें डांट-डपट कर, व्यापार के लॉलीपॉप दिखाकर, घुड़की देकर युद्धविराम करवा देने की खुद की उपलब्धि का बखान ट्रम्प बार-बार लगातार कर रहे हैं।

इसकी आवृति और बारम्बारता इतनी है कि अब तो गिनती करना तक कठिन होता जा रहा है। 10 मई के बाद के 11 दिन में ट्रम्प ने 8 बार, हर बार कुछ नया मिर्च-मसाला जोड़कर युद्धविराम करवाने का दावा दोहराया। एक देश नहीं, सऊदी अरब और क़तर सहित तीन-तीन देशों के सार्वजनिक कार्यक्रमों में यही बात बोल-बोलकर सार्वजनिक रूप से भारत को उसकी हैसियत दिखाई है।

23 मई को न्यूयॉर्क स्थित अमरीका की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जुड़े मामलों की संघीय अदालत में तो बाकायदा शपथपत्र दाखिल करके लिखा-पढ़ी में इसे उदाहरण के रूप में पेश किया है। टैरिफ बढ़ाने-घटाने के राष्ट्रपति के निरंकुश अधिकार को चुनौती देने वाली याचिका के जवाब में ट्रम्प प्रशासन के प्रतिनिधि ल्यूटनिक ने तीन न्यायाधीशों की पीठ के सामने शपथ पत्र देकर टैरिफ नीति की कारगरता बताई। उसने उदाहरण देते हुए कहा कि “भारत और पाकिस्तान – दो परमाणु शक्ति संपन्न देश जो सिर्फ़ 13 दिन पहले युद्ध अभियानों में लगे हुए थे – 10 मई, 2025 को एक अनिश्चित युद्ध विराम पर पहुँचे। यह युद्ध विराम केवल राष्ट्रपति ट्रम्प के हस्तक्षेप के बाद ही हासिल किया गया था और दोनों देशों को पूरी तरह युद्ध को रोकने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ व्यापार करने की पेशकश की थी। इस मामले में राष्ट्रपति की शक्ति को बाधित करने वाला कोई भी प्रतिकूल निर्णय भारत और पाकिस्तान को राष्ट्रपति ट्रम्प की पेशकश की वैधता पर सवाल उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है, जिससे पूरे क्षेत्र की सुरक्षा और लाखों लोगों की जान को खतरा हो सकता है।”

इस तरह अब भारत को समर्पण कराना भी एक नजीर की तरह पेश किये जाने की नौबत आ गयी है। याद रहे कि भारत या पाकिस्तान में से किसी के भी युद्ध विराम का एलान करने के पहले – सबसे पहले –जानकारी ट्रम्प ने ट्विटर एक्स पर दी थी। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ट्रम्प के मुंह से कोई दर्जन भर बार यह दावा दोहराया जा चुका है – इनमें उपराष्ट्रपति वेंस और विदेश मंत्री मार्को रुबियो द्वारा किये गए ऐसे दावों का शुमार नहीं है।

इस बीच एक नया ब्यौरा रूस के राष्ट्रपति पुतिन के विशेष सलाहकार यूरी उशाकोव ने जोड़ दिया है, जो ट्रम्प के सीजफायर दावे को प्रामाणिकता देता है। एक इंटरव्यू में उशाकोव ने कहा कि “ट्रम्प और पुतिन के बीच करीब 75 मिनट की बातचीत हुई, जिसमें परमाणु शक्ति सम्पन्न भारत और पाकिस्तान के बीच जंग एक अहम् मुद्दा थी। इसमें ट्रम्प ने बताया कि किस तरह वह इन दोनों देशों के बीच युद्ध विराम करवा रहे हैं।“

भले मोदी, उनके विदेश मंत्री और उनके सरसंघचालक से लेकर शाखा प्रमुख तक इतना सब होने पर भी मुसक्का बाँध कर बैठे हों, किन्तु विदेश विभाग के प्रवक्ता रंधीर जायसवाल एक पत्रकार वार्ता में इसे अपरोक्ष रूप से स्वीकार कर चुके हैं। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने माना कि “हाँ, युद्ध के दौरान अमरीकी उपराष्ट्रपति वेंस और प्रधानमंत्री मोदी तथा अमरीकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो और विदेश मंत्री एस जयशंकर के बीच बातचीत हुई थी, मगर इसमें व्यापार की कोई बात नहीं थी।“ इन पंक्तियों के बीच वह स्वीकारोक्ति छुपी है, जिसका खंडन करने को हिम्मत नहीं हो रही, क्योंकि यह बातचीत मौसम का हाल जानने के लिए नहीं थी – युद्ध रोकने की ही थी!!

किसी संप्रभु देश, उसमें भी भारत जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे अधिक आबादी वाले देश के साथ इस तरह का बर्ताव, तीसरे देशों में जाकर उसका बार-बार दोहराया जाना सिर्फ कूटनीतिक मर्यादाओं का उल्लंघन ही नहीं है, सरेआम लज्जित और अपमानित करने वाला भी है। सवाल यह है कि दशकों से आमतौर से आत्मसम्मान की विदेश नीति पर चलने वाले और उसके चलते दुनिया भर में अपनी सम्मानजनक हैसियत बनाने वाले देश के साथ ऐसी नौबत क्यों, कैसे और किनके कारण आई है? यह सवाल इसलिए अहम है, क्योंकि यह सिर्फ एक घटना नहीं है – यह एक ऐसी फिसलन है, जो यदि अभी नहीं रोकी गयी, तो बहुत तेजी से रसातल में पहुंचा देगी।

जी-7 की बैठक में ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ वाला ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म’ एपिसोड ट्रम्पियापे पर हुए मोदियापे के नए सीजन का ही हिस्सा है। बाकी देशों को डेढ़-डेढ़ महीने पहले बुलावा भेजना, भारत को न्यौता देने में इतनी देर करना, महज सप्ताह भर पहले भेजे आमंत्रण में भी रूखी-सूखी भाषा का इस्तेमाल करना अभद्रता तो है ही, भारत की अभी हाल तक की अंतर्राष्ट्रीय हैसियत के मुताबिक़ भी नहीं है। जैसे देर से न्यौतना ही काफी नहीं था, सो यह भी बता दिया गया कि यह न्यौता भी सशर्त है। मेजबान देश कनाडा के प्रधानमंत्री कार्नी ने पत्रकार वार्ता में यह जानकारी देते हुए कहा कि “हम अब, महत्वपूर्ण रूप से, कानून प्रवर्तन वार्ता जारी रखने के लिए सहमत हो गए हैं, इसलिए इस पर कुछ प्रगति हुई है, जो जवाबदेही के मुद्दों को पहचानती है।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मोदी को निमंत्रण देने में यह एक कारक था। एक सूत्र ने टोरंटो स्टार को बताया कि यह मोदी को निमंत्रण देने के लिए “शर्तों” में से एक था।

कनाडा दुनिया के उन कुछ देशों में से एक है, जहां भारतीय मूल के नागरिकों की भरी-पूरी आबादी है और उसकी काफी हद तक निर्णायक भूमिका भी है। कार्नी यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि 15-17 जून को कनानसकीस, अल्बर्टा में होने वाला जी-7 शिखर सम्मेलन “शांति और सुरक्षा को मजबूत करने, विदेशी हस्तक्षेप के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय अपराध का मुकाबला करने और जंगल की आग के लिए संयुक्त प्रतिक्रियाओं में सुधार” पर केंद्रित होगा। यह उन तीन प्राथमिकताओं में से पहली है, जिन्हें कार्नी ने शिखर सम्मेलन के लिए रेखांकित किया है। खालिस्तानी पृथकतावादी निज्जर की हत्या के बाद कनाडा द्वारा भारत सरकार पर लगाए गए आरोपों के मद्देनजर यह मोदी सरकार के बारे में कनाडा द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं को साफ़-साफ़ दर्ज करता है। उस शर्त की तरफ भी इंगित करता है, जो आख़िरी समय पर दिये गये बुलावे के साथ जुड़ी बताई गयी हैं।

मगर एक तो बात इतनी भर नहीं है और दूसरे ये कि न्यौते को लटकाकर रखने के पीछे सिर्फ कनाडा भर नहीं है – अंदरखाने बहुत कुछ हुआ है, डील और भी हैं। जी-7 के न्यौते के साथ ही भारत सरकार ने एलान किया है कि वह डालर की जगह किसी स्थानीय करेंसी के उपयोग के ब्रिक्स के प्रस्ताव के साथ नहीं जाएगी। यह मांग असल में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने मोदी के सामने पत्रकार वार्ता में तब की थी, जब वे उन्हें चुने जाने की बधाई देने गए थे। ट्रम्प ने ब्रिक्स को बंद कर देने तक की हिदायत दी थी और मोदी दन्त-मुख व्यायाम करते रहे थे, जबकि दक्षिण अफ्रीका, यहाँ तक कि यूक्रेन जैसे देश भी ट्रम्प के बडबोलेपन का जवाब उसके मुंह पर देकर आये थे।

ब्रिक्स अमरीकी वर्चस्व वाली एकध्रुवीयता के मुकाबले के लिए बना संगठन है। भारत इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है। उसके अलावा ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका इसमें हैं, कुछ और देश इसमें शामिल हुए हैं और अनेक अन्य देश इसकी सदस्यता की कतार में हैं। ब्रिक्स बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देशो का संगठन है, जिनका दुनिया की जीडीपी में 35% हिस्सा है, जबकि जी-7 का हिस्सा सिर्फ 30% है। ब्रिक्स गठबंधन के देश हर पैमाने से जी-7 देशों की तुलना में मजबूत हैं और लगातार आगे की और बढ़ रहे हैं, जबकि इससे उलट जी-7 देशों की अर्थव्यवस्थाएं गिरावट की ओर हैं। वर्ष 2000 में, दुनिया की कुल जीडीपी में जी-7 देशों की हिस्सेदारी 40% से अधिक थी, लेकिन 2024 तक यह 30% से नीचे गिर गई। यह गिरावट मुख्य रूप से चीन, भारत, ब्राजील के आर्थिक विकास के कारण है और मैन्युफैक्चरिंग से लेकर उपभोग तक चौतरफा है ।

ब्रिक्स संगठन का एक बड़ा लक्ष्य अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को कम करना है। वैश्विक लेन-देन में डॉलर के प्रभुत्व से इन देशों की असहमति है। डॉलर पर टिकी प्रणाली बाकी देशों को पश्चिमी प्रतिबंधों के अधीन कर देती है। इसलिए ब्रिक्स ने शुरू से ही व्यापार में स्थानीय मुद्राओं के उपयोग को बढ़ावा देने और गैर-डॉलरीकरण की दिशा में कदम बढ़ाने का समर्थन किया है। ब्रिक्स देश एक दशक से भी अधिक समय से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की प्रधानता को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। बात तो यूरोपियन यूनियन की यूरो जैसी ब्रिक्स की अपनी मुद्रा बनाने तक की हुई है।

डॉलर के स्थान पर किसी नई मुद्रा को अपनाने से सबसे अधिक फायदा ब्रिक्स देशों को हो सकता है। हाल के वर्षों में इन देशों ने अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता घटाने की दिशा में कुछ, भले ही सीमित प्रयास किये हैं। खुद भारत अपनी मुद्रा की मांग बढ़ाने के प्रयत्न करता रहा है। बड़े तेल उत्पादकों के साथ गैर-डॉलर भुगतान आधारित तेल बिक्री पर बातचीत करने का प्रयास किया है। चीन ने सऊदी अरब से ऐसे करार किये, भारत ने रुपए में तेल की कीमत तय करने के लिए यूएई के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। इसी वर्ष ब्रिक्स की बैठक होने वाली है, जिसका जिकरा जी-7 का न्यौता न मिलने पर खुद मोदी प्रचारकों ने बड़े जोर-शोर से किया था ; उन्होंने कहा था कि जी-7 में नहीं बुलाया तो क्या, ब्रिक्स में तो जाईबेई करेंगे। बात साफ़ है कि जी-सेवेनिये उजड़ते नवाबों के साथ दस्तरखान पर सिवैयां खाने से पहले ही उसकी कीमत चुकाई जा रही है ; हालांकि आशंका बनी हुई है कि जी-7 के पीरे मुगा ट्रम्प यहाँ कही इन्हीं के सामने तेरहवीं बार फिर से युद्धविराम कराने का जिक्र न छेड़ दें। अगर कहीं ऐसा हुआ, तो लिखकर रख लीजिये कि मोदी अत्यंत शिष्ट, मृदु और अल्पभाषी व्यक्ति होने का परिचय देंगे और उनके सामने कुछ नहीं बोलेंगे।

बकौल मोदी चौथी और यूं पांचवी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद मोदी और उनकी सरकार इतने दबाब में क्यूँ हैं? दक्षिण अफ्रीका में हवाई अड्डे पर रिसीव करने वहां के राष्ट्रपति के न आने, नेपाल के इनके कहने पर चलने से इंकार कर देने, श्रीलंका के अपना रास्ता खुद चुनने जैसी हर बात पर फूफागिरी दिखाने वाले मोदी ट्रम्प और जी-7 के सामने इतने सहमे-सहमे से क्यूँ हैं? इसलिए कि उनकी विचारधारा ही साम्राज्यवाद की मातहती की विचारधारा है। संघ–जनसंघ से भाजपा तक साम्राज्यवादी अमरीका इनका आराध्य रहा है। उसके लघेन्टे बनना इनका सपना रहा है। ट्रम्प युग का अमरीका तो और भी सगा वाला नजर आता है। फिर इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी का अपना ही अल्गोरिथम है। वह सत्ता के साथ अपनी रही-सही दिखावटी आड़ भी ख़त्म कर देने की हड़बड़ी में है। ट्रम्प और मस्क के बीच फूट रही फुलझड़ियाँ इसी की एक झलक हैं।

उस पर नकली सोने में फर्जी सुहागा यह है कि इधर वाले के अपने मस्क हैं, जिनका नाम अडानी और अम्बानी है। उन्हें भी अब बड़े अखाड़ों में खेलना है – उस एवज में भले ही देश को कितना ही घाटा या जोखिम क्यों न उठानी पड़े ; उनके राजनीतिक चाकरों को सौ प्याज के साथ सौ जूते ही क्यों न खाने पड़े। अम्बानी और मित्तल को कहार बनाकर स्टारलिंक को अपनी पालकी भारत में पधराने की अनुमति इसी श्रृंखला में देखी जानी चाहिए। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा का क्या होगा, लोगों की निजता कितनी बचेगी, इन्टरनेट की उपलब्धता कितनी महंगी होगी, यह सब चिंताएं देसी और विदेशी कारपोरेट के मुनाफों के बोझ तले दम तोड़ देती हैं। यही है फासीवाद की वह नयी किस्म, जो पूँजी की जनरेशन एक्स के पालने में पलती है।

इस सरेंडर से ध्यान बंटाना है। जनता का जो हिस्सा – और यह बड़ा हिस्सा है – इस सबको गलत मानता है, उसे भुलावे में डालना है, तो नरेंदर सड़कों पर तफरीह करने निकलते हैं। लगभग सारे उद्योग-धंधे, व्यापार-व्यवसाय, बैंक-बीमा विदेशी पूँजी और उसके साथ जूनियर पार्टनरी करने वाले देसी धनपिशाचों के हवाले करने के बाद छोटी आँखों वाले गणेश न खरीदने, हर विदेशी माल का बहिष्कार करने का ऐसा नारा दे रहे हैं, जिसके बारे में उन्हें पता है कि इसे न लागू होना है, न इन्हें करवाना है। इनके मात-पिता संगठन को भी अपने उस स्वदेशी आन्दोलन की सुध आने लगती है, जिसे दशकों पहले स्वयं इन्हीं ने अपने कर कमलों से कब्र में सुलाकर गोभी उगाये थे।

यह विचित्र समय है, सचमुच का विचित्र समय!! मगर स्थायी नहीं है। इससे पहले भी ऐसे समय आये हैं, जनता उनसे बाहर निकली है, दुनिया को भी साबुत सलामत बाहर निकाला है। उसके पास कुंजी है – एकजुट, जुझारू और कारगर प्रतिरोध की कुंजी। दुनिया भर में इस तरह के उभार सामने आ रहे हैं, खुद अमरीका भी उबलने के बिंदु तक पहुँच रहा है। भारत के मेहनतकश खासतौर से पिछली 34 वर्षों के नवउदार युग के संघर्षों की भट्टी से गुजरते हुए सक्षम हो चुके हैं। यही रास्ता है – इसी तरह होना चाहिए – ऐसा ही होगा।

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(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)

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