आस्था का बाजार या बाजार की आस्था

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आस्था का बाजारीकरण या बाजारीकरण के प्रति आस्था । अचानक आस्था में इतने गुना की बढ़ोत्तरी किस महात्मा के प्रवचन के कारण ? क्यों अचानक इतने लोग आस्था वान हो गए । कौन है वो महान संत जिसके शब्दो मे इतनी क्षमता है कि लोग पागलपन को आस्था नाम देने तैयार हो गए ? कही उस संत का नाम बाजार तो नही ? कही वो आस्थावान भक्त उपभोक्ता तो नही । व्यवस्था की आलोचना आस्था और धर्म की आलोचना नही । आस्था को गलत परिभाषित किया जाए उसका बाजार निर्मित किया जाए लोगो को भ्रमित किय्या जाए तो उसकी आलोचना को धर्म की आलोचना नही उस बाजार की आलोचना समझना चाहिए । धर्म के बाजार की आलोचना सीमित शब्दो मे करने के लिए धर्म के परिभाषा को स्पष्ठ करने और अंध विश्वास और धर्म मे भेद बताने की आवश्यकता होती है । यहां ये समझना होगा हमे वो आलोचक भी जागरूक सनातनी है जो अंधश्रद्धा व श्रध्दा के भेद को बता रहा । बहुत सारे धर्म अनुयायी किसी विशेष दल या राजनेता के समर्थक इसे धर्म पर कुठाराघात के तौर पर देखते है । इतनी मौतें इतनी तबाही की आलोचना भी इन्हें धर्म की आलोचना नजर आती है ।ऐसे धर्मावलंबियों को पुनः विचार करने की आवश्यकता है क्या वे सही है । थोड़ी देर खुदको उस जगह रख कर देखे जहा ये पीड़ित है । उन्हें विचार करना चाहिए जहां इतने वर्षों से लोगो मे इस तरह की आस्था करोड़ो बर्षो में न जाग सकी जबकि हमारे ग्रंथ कई युगों से है , आज क्यों जगी ? कही ये आस्था बाजारवाद के प्रति मोह तो नही । किस ग्रंथ ने ऐसे धार्मिक आयोजन को मेला कहा है क्या इसका विस्तार से कोई जानकारी कोई दे सकता है अगर किसी को ज्ञात हो तो कृपया दे मेला कब से और क्यों शुरू हुआ । ख़ौफ़नाक सच से आंख मूंदना अंध शृद्धा को बढ़ावा देना है आस्थावान होना नही । हे आस्थावान लोगो धर्म को धर्म रहने दो उसे बाजार बनाने वालों को मदद मत करो वर्ना धर्म सिर्फ बाजार रह जायेगा , धर्म कतई नही ।वैसे आप कह सकते है प्रतिदिन करोड़ो लोग मरते है , जिसका जब तक लिखा है तब तक रहेगा और ऐसा दूसरे व्यक्ति या परिवार के लिए कहना सच मे सहज भी होता है ।इतने त्वरित गति से आस्था नही जागती हा बाजार का प्रभाव अवश्य पड़ता है और आप उस बाजार का समर्थन कर रहे धर्म का कतई नही । क्षमा चाहता हूं।

– सुनील , चिरिमिरी